How to Maintain Stability of Mind in Meditation ध्यान में चित्त की स्थिरता कैसे बनाए रखें

How to Maintain Stability of Mind in Meditation ध्यान में चित्त की स्थिरता कैसे बनाए रखें
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साप्ताहिक डायरी भाग – 12

दोस्तों आज सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के बारहवें भाग से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ। पिछले भाग में आप मेरी डायरी के पन्नों में सिमटी जानकारी  शरीर की प्रकृति के अनुसार आहार के चुनाव करने के सफ़र में शामिल हुए थे।आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ।आइये चलें , सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के पन्नों में श्वांस भरते लम्हों में से ध्यान में स्थिरता कैसे बनाए रखें का सफर  तय करें।

 

पतंजलि योगसूत्र के अनुसार योग का सातवाँ चरण ध्यान है। इस चरण में प्रवेश करने से पूर्व महर्षि पतंजलि द्वारा बताये गए योग के छह अंगों के अभ्यास में निपूर्ण होना आवशयक है। दोस्तों, सामान्यतः देखा जाए तो जिसे हम धारण करना चाहते हैं, उसी वस्तु/पदार्थ पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है। किन्तु योग में धारणा में लीन होकर समाहित हो जाने को ध्यान कहते हैं। ये तभी संभव है, जब चित्त एवं शरीरिक गतिविधियाँ स्थिर होकर आत्मा केन्द्रित हो जाएँँ। अर्थात ध्यान साधना के दौरान साधक को समय और इन्द्रियों की अनुभूति का भी भान न रहेे।

 

दोस्तों, मोटे तौर पर चित्त का अर्थ मन से लगाया जा सकता है।किन्तु योग में चित्त का अर्थ बहुत व्यापक है। चित्त की चंचलता के अंतर्गत मूर्त विचार,अमूर्त विचार, अनुभव, सुख -दुःख की अनुभूति, सभी प्रकार की भावनाएं, धारणा, एकाग्रता, बुद्धि आदि सम्मलित हैं। मन के इन सभी आयामों को शून्य करने पर स्थिरचित्त की अवस्था प्राप्त होना संभव है।

चलिए मेरी डायरी के पन्नों में सिमटे ध्यान में स्थिरचित्त रहने से सम्बन्धित दिन-प्रतिदिन के अनुभव से आपका परिचय करवाऊँ :

 

ध्यान में स्थिरचित्त रहने के लिए  चित्त और शरीर दोनों को शांत करने का अभ्यास आवश्यक है। इस सम्बन्ध में अपने दिन -प्रतिदिन के अनुभव को आपके साथ शेयर कर रहीं हूँ :

 

दोस्तों, ध्यान साधना की शुरुआत करने के पहले दो महीने तक मैं सुबह उठने के बाद नित्य कर्म करने के बाद आँखों में पानी के छीठे डाल कर फ्रेश होने के बाद ध्यान साधना शुरू कर देती थी।

ध्यान साधना की शुरुआत मैं आधे घंटे से आरम्भ की थी। इसके बाद 10 मिनट फिर 15 मिनट साधना के समय को बढ़ाने में सफलता प्राप्त कर सकी।

एक घंटे के करीब समय बढ़ाने के क्रम में शरीर को साधने की आवश्यकता महसूस होने लगी। एक घंटा ध्यान साधना का समय बढ़़ाने में आने वाली रुकावट में पैर में दर्द होने के कारण एक हीं मुद्रा में बैठे रहना असहनीय प्रतीत होने लगा।

 

इस बाधा से निपटने मैंने अपने दृढ़ निश्चय का सहारा लिया। जैसे-

  • दर्द होने के बावजूद ध्यान मुद्रा में बैठे रहना।
  • दर्द के कारण ध्यान विचलित होने पर भी केवल शरीर को साधने के मकसद से एक घंटे तक बैठे रहना।
  • इसी प्रकार दो घंटे के करीब ध्यान के समय को बढ़ाने तक पहुँचने पर भी केवल शरीर साधने के मकसद से बैठने का अभ्यास करना।
  • शरीर को ध्यान मुद्रा में लम्बे समय तक साधने के लिए प्राणायाम के महत्त्व को समझने और प्रयोग करना शुरू की। गहरे ध्यान में उतरने के लिए प्राणायाम करना बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ।

 

इन प्रयोगों को करने के फलस्वरुप मै इस निष्कर्ष पर पहुँची कि –

जब ध्यान के समय में एकदम से 10 मिनट या 20 मिनट की वृद्धि करते हैं, तो शरीर में दर्द होना स्वाभाविक है। क्योंकि ध्यान के अभ्यास के साथ -साथ आपके शरीर की जैविक घड़ी/बायो क्लॉक भी सेट होती चलती है।जैसे –

एक निर्धारित समय तक ध्यान की प्रक्रिया दुहराते रहने से बिना भौतिक घड़ी में अलार्म सेट किये ध्यान के समय पर नींद खुल जाना और फिर ध्यान की अवधि पूरी होने पर स्वतः ध्यान टूट जाना।

इसी कारण ध्यान साधना में शरीर को जैविक घड़ी के अनुसार साधने की आवश्यकता पड़ती है।

 

इन प्रयोगों के फलस्वरूप मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि शरीर एक यंत्र है। जिसकी गतिविधियों को साधना के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है। 

 

ध्यान साधना में स्थिर चित्त अवस्था प्राप्त करने के लिए चित्त को साधना मतलब योग में पारंगत होना है। इसके लिए पतंजलि योगसूत्र के छठे चरण धारणा के अभ्यास में निपूर्णता प्राप्त करना आवश्यक है।

 

दोस्तों अब मैं ध्यान साधना के क्रम में चित्त साधने के अभ्यास की प्रक्रिया का अनुभव आपके साथ शेयर कर रहीं हूँ :

  • ध्यान साधना के क्रम में जैसे -जैसे शरीर साधने में सफलता मिलती है, उसी के सापेक्ष ध्यान धारणा के लिए चयनित शरीर के चक्र के बिंदु पर मन टिकने लगता है।
  • चित्त को साधने के लिए भी मन की भावनाओं को साधना पड़ता है। मन के विचारों, दृश्यों सहित विचारों (मूर्त विचार), किसी के द्वारा कही -सुनी नजरअंदाज की गयी विचार (अमूर्त विचार) एवं इन सभी प्रकार के विचारों से उत्पन्न हुई भावनाओं आदि को ध्यान के दौरान मन से दूर करने के लिए दैनिक जीवन में द्रष्टा भाव में रहने का अभ्यास करना आवश्यक है।

द्रष्टा भाव किसे कहते हैं Drashta Bhav kise kahte hain

द्रष्टा भाव में रहने से अभिप्राय है, “जीवन को नाटक समझ कर पूर्ण निष्ठा से अपना कर्म करना और उस कर्म के फलस्वरूप जो भी फल मिले उसे प्रसन्नतापूर्वक पूर्वक स्वीकार करना है। इसके अतिरिक्त दूसरे जीवों के कर्मों की विवेचना न करते हुए जीवन की सभी गतिविधियों को दर्शक की भान्ति देखने का आनंद उठाने का अभ्यास करना है।”

द्रष्टा भाव में रहने के अभ्यास में निपूर्णता होने के साथ हीं चित्त की स्थिरता की अवस्था प्राप्त करने में सफलता मिलने की शुरुआत होने लगेगी।

दरअसल जब हम जीवन की सभी गतिविधियों को दर्शक बनकर देखने का आनंद उठाएंगे और कर्म करने के पश्चात् प्राप्त फल को सहर्ष स्वीकार करने की युक्ति को अपनाने का भाव रखने में विश्वास करेंगे, तो हमारे चित्त में सभी प्रकार के विषयों से सम्बंधित विचारों और भावनाओं की अनुभूतियों से सम्बंधित उत्तेजना के भाव की उत्पत्ति नहीं होगी।जिससे हमारे चित्त की चंचलता समाप्त होने लगेगी। परिणामस्वरूप ध्यान के दौरान स्थिर चित्त की अवस्था में पहुँचने की सम्भावना बढ़ती जायेगी।

 

 

अध्यात्म से सम्बंधित मेरे उत्तर पढ़ने के लिए लिंक पर क्लिक करिए।

 

 

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