Who is monk? How to become a monk? सन्यासी कौन होता है?सन्यासी कैसे बना जा सकता है?

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जीवन में मृत्यु के भय से मुक्त होने के लिए सन्यास का महत्व समझना आवश्यक है। सन्यास का अर्थ जीवन नाटक के कर्तव्यों को पूरा करने के बाद अपने मूल आत्मिक परिचय में वापस लौटने के लिए अभ्यास करना है। जैसे नाटक के कलाकार नाटक में अपनी भूमिका निभाने के बाद वापस अपने असली रूप में आ जाते हैं। जीवन की शुरुआत जन्म लेकर नाटक में प्रवेश करने से जीव करता है और फिर नाटक का अंत अपने मूल स्वरूप में वापस मृत्यु को प्राप्त करके करता है। ये जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। फिर प्रश्न उठता है कि जब स्वाभाविक रूप से जीव अपने मूल स्वरुप में वापस आ जाता है, तो जीवन जीने की प्रक्रिया में सन्यास लेने की क्या आवश्यकता है? इसका उत्तर है सन्यास की आवश्यकता जीवन नाटक के मोह – माया के बंधन को त्यागने के लिए आवश्यक है। जीवन की वास्तविकता मृत्यु अर्थात अपने मूल स्वरूप को प्राप्त करने के भय से मुक्त होने के लिए सन्यास का अभ्यास आवश्यक है। आइये समझने की कोशिश करें कि सन्यास कैसे प्राप्त किया जा सकता है और सन्यासी किसे कहा जा सकता है?

सन्यासी किसे कह सकते है 

सन्यासी का अर्थ है, जीवन को मोक्ष प्राप्ति के लिए समर्पित कर देना। सन्यासी अर्थात साधु, संतों की संगति में रहते हुए मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहना।

मोक्ष से अभिप्राय है, जीवन में अर्थ, काम, मोह-माया से विरक्त होकर ध्यान की उच्चतर अवस्था में पहुँचने के माध्यम से आत्मदर्शन करना।

सन्यासी को इस प्रकार परिभाषित कर सकते हैं-

मोक्ष प्राप्ति के लक्ष्य को प्राप्त करने में जीवन व्यतीत करने वाला व्यक्ति सन्यासी कहलाता है।


अब कलयुग में सन्यासी बनने के लिए क्या करना चाहिए? चलिए इसकी विवेचना शुरू करते हैं –

सन्यासी बनने के लिए युवावस्था के दहलीज पर कदम रखते हीं जीवन का लक्ष्य (सन्यासी) निर्धारित कर लेना चाहिए। जिससे सन्यासी बनने के लक्ष्य को हासिल करने में सक्षम बनना सहज हो सकेगा। जीवन में सन्यास के नियमों पर अग्रसर होने के लिए चरणबद्ध तरीके से मन और शरीर को साधना आवश्यक है। आईए समझे जीवन के किस चरण पर किन नियमों का पालन करने से सन्यासी बनने के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है –

  • ,सन्यासी बनने के लिए व्यक्ति को सबसे पहले संसारिक मोह-माया, लोभ, काम, अर्थ पर विजय प्राप्त करना आवश्यक है।
  • जब व्यक्ति के आचरण में इन सभी भावों के प्रति वैराग्य की भावना प्रबल हो जाए, तब इन्द्रियों को वश में करने का अभ्यास आरम्भ करना चाहिए। इन्द्रियों को वश में करना ध्यान के माध्यम से संम्भव है।
  • अब अंतिम चरण यानि संन्यासी बनने की प्रक्रिया आरम्भ होती है। इस अवस्था में पहुँचाने के बाद किसी आत्मज्ञानी गुरू के शरणागत होना चाहिए। फिर गुरु के बताए गये विधियों का पालन करते हुए ध्यान की उच्चतर अवस्था में पहुँचने और आत्मदर्शन करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। इस प्रकार कोई भी व्यक्ति सन्यासी बनने में सफल हो सकता है।

उपर्युक्त बताये गये नियमों का पालन करने के लिए शरीर, मन और बुद्धि को चरणबद्ध तरीके से ढालना होता है। अर्थात अर्थ (धन), काम, लोभ, मोह – माया का त्याग करना एक गृहस्थ के लिए सहज नहीं होता है।इसी कारण हिंदु धर्म में मनुष्य के जीवन काल को चार आश्रम में विभाजित करने का उल्लेख किया गया है। ब्रहमचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास

ये चार आश्रम व्यक्ति को जीवन के लक्ष्य (मोक्ष) प्राप्त करने के लिए चरणबद्ध तरीके से तैयार करते हैं।

सन्यासी बनने की राह में प्राचीन आश्रम व्यवस्था का क्या योगदान है?

प्राचीन काल में मानव की आयु को सौ वर्षों का मानते हुए चार आश्रम में विभाजित किया गया था।

ब्रहमचर्य आश्रम :

व्यक्ति के जीवनकाल के प्रथम 25 वर्ष को ब्रहमचर्य आश्रम में रखा गया था। इस आश्रम में व्यक्ति को संसारिक जीवन जीने के ज्ञान अर्जित करना होता था।

गृहस्थ आश्रम :

इसके बाद के 25 – 50 वर्षों तक गृहस्थ आश्रम का पालन करना होता था। इस दौरान विवाह के बंधन में बंधने के पश्चात पति-पत्नी धर्म का पालन करते हुए व्यवसाय करने के प्रतिफल में अर्थ , काम का सुख उठाते थे। इस, दौरान बच्चे का पालन-पोषण करने के पश्चात बच्चों की शादी करने के दायित्व का निर्वाह करना होता था।

वानप्रस्थ आश्रम :

इसके बाद 50 – 75 वर्षों तक वानप्रस्थ आश्रम के नियमों का पालन करना होता था। इस आश्रम में पहुँचने पर गृहस्थी के दायित्व से मुक्त होकर समाज सेवा, विद्या दान, ध्यान आदि कर्मों में लिप्त रहते हुए जीवन यापन करते थे। इस आश्रम में गृहस्थी के दायित्व से मुक्त होने के कारण अर्थ और काम को त्याग कर वैराग्य प्राप्त करना सहज हो पाता था।

सन्यास आश्रम :

इस दौरान समाज सेवा, धर्म सेवा, विद्यादान और ध्यान आदि कर्म करते हुए जीवन यापन करना होता था। जिससे शरीर, मन और बुद्धि सन्यास लेने के योग्य बनने के लिए तैयार करना संम्भव हो पाता था।

अत: कलयुग में भी सन्यासी बनने के लिए प्राचीन काल में हिन्दु धर्म में प्रचलित आश्रम व्यवस्था के नियमों का हीं पालन करना श्रेयस्कर होगा।

 

 

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