My Experience of Celibacy Practice ब्रह्मचर्य अभ्यास का मेरा अनुभव

My Experience of Celibacy Practice ब्रह्मचर्य अभ्यास का मेरा अनुभव
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दोस्तों आज सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के 36 वें भाग से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ। पिछले भाग में आप मेरी डायरी के पन्नों में संजोये डिप्रेशन में राहत के लिए डाइट टिप्स की जानकारी से परिचित होने के सफर में शामिल हुए थे। आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ। इस भाग में ब्रह्मचर्य अभ्यास का मेरा अनुभव शीर्षक लेख से आपका परिचय करवा रहीं हूँ।

ब्रह्मचर्य पालन करने से क्या तात्पर्य है? कैसे करना चाहिए? आदि जानने से पहले ब्रह्मचर्य के अर्थ पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।

Meaning of Celibacy  ब्रह्मचर्य से अर्थ 

ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म +चर्य जहाँ ब्रह्म से तात्पर्य परमात्मा से और चर्य से तात्पर्य विचरण है। अतः ब्रहमचर्य का पालन करना यानी अपने परमात्मा स्वरूप अंश होने के चिंतन में प्रतिपल विचरण करना है।

अब प्रश्न यह उठता है कि क्या मात्र अपने परमात्मा स्वरूप अंश होने के चिंतन करते रहने से ही ब्रह्मचर्य का पालन होना संभव है? इसके लिए ब्रह्मचर्य का चिंतन कैसे करें? जानना आवश्यक हो जाता है।

What is Celibacy ब्रह्मचर्य पालन क्या है 

मानव शरीर की पाँच वाह्य ज्ञानेन्द्रियाँ है – आँख, नाक, कान, त्वचा, जीभ तथा एक अतरिंद्रिय “मन” है। इन ज्ञानेन्द्रियों में विषयों यथा रस, रूप, गंध, स्पर्श एवं शब्द की उपलब्धि का माध्यम मन है। अर्थात ज्ञानेन्द्रियाँ खिड़की की भाँती हैं, जिनके माध्यम से सांसारिक विषयों को देखा, सुना, स्पर्श आदि किया जा सकता है। किन्तु इन विषयों में लिप्त होने की लालसा या अलिप्त रहने की भावना को आवेग देना मन के वश में होता है। यानी विषयों की अभिलाषा से सम्बंधित विचार करने पर ही उनकी ओर आकर्षण या विकर्षण की प्रतिक्रिया का प्रतिपादन होता है।

 

कहने का तात्पर्य है ब्रह्मचर्य पालन के लिए मन को विषयों के चिंतन से अवरुद्ध करना हीं एकमात्र लक्ष्य होता है। यानि केवल चिंतन करने योग्य विषयों पर ही चिंतन करने के लिए मन को निर्देशित करना है।

 

अब प्रश्न उठता है कि कैसे तय किया जाए कि किस विषय पर कितना चिंतन करना ठीक है? इस प्रश्न का उत्तर समझने के लिए इन्द्रियों के विषय की मर्यादा को समझना आवश्यक हो जाता है। इस प्रश्न के उत्तर को समझने के दो विकल्प हो सकते है-

 

पहला विकल्प अध्यात्मिक मार्ग पर चलने के जिज्ञासु अष्टांग योग के नियमों का पालन करने के क्रम में अपनी तार्किक बुद्धि के उपयोग से ब्रह्मचर्य का अनुभव प्राप्त कर आत्मसात कर सकते हैं।

 

दूसरा विकल्प है योगियों के अनुभव पर आधारित वेद-पुराणों में वर्णित इन्द्रियों के मर्यादा की व्याख्या को समझना और उसका पालन करने के क्रम में आत्मसात करना है।

 

वैदिक काल में मानव जीवन काल को चार आश्रम में विभाजित किया गया था। जिसमें पहले जीवन काल के प्रथम 25 वर्षों तक ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार भी मानव की आयु के प्रथम 25 वर्षों तक वीर्य और रक्त कणों का विकास बहुत तीव्र गति से होता है। यदि इस उम्र तक ब्रह्मचर्य पालन करने के माध्यम से शरीर की उर्जा को संचित किया जाए, तो व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक रूप से उम्र भर स्वस्थ रहने की संभावना बढ़ जाती है।

My Experience of Celibacy ब्रह्मचर्य पालन का मेरा अनुभव 

ब्रह्मचर्य पालन में सहायक है प्रार्थना, भक्ति, सत्संग, वेद- पुराणों का अध्ययन या वेद- पुराणों के ज्ञाताओं की संगति, दुर्गा सप्तशती के पाठ का नियमित अध्ययन, परिवार के सदस्यों का सात्विक विचारधारा, सात्विक भोजन, कर्तव्यों के प्रति ईमानदारी की भावना, शिक्षाप्रद और भक्तिपूर्ण सिनेमा/नाटक ही देखना, मौन रहने का अभ्यास, कथनी और करनी में अंतर न होना आदि। यदि बचपन में ही बच्चों का पालन – पोषण  उपर्युक्त संस्कारों से युक्त परिवेश में हो, तो ऐसे बच्चों के लिए ब्रह्मचर्य पालन करना आसान हो जाता है।

 

ऐसा मेरा स्वयं का अनुभव है बचपन में मेरे परिवार के सभी सदस्य प्रातः और संध्या वंदन नियमित रूप से करते थे। इसके अतिरिक्त मेरी दादी जी, बुआ जी, मम्मी, दादा जी को मैं नियमित रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ करते देखती आई थी। तो युवावस्था तक पहुँचने के क्रम में दुर्गा सप्तशती का पाठ मेरे दिनचर्या में स्वतः ही शामिल हो गया। दुर्गा सप्तशती के पाठ की शुरुआत कवच, अर्गला और कीलक स्त्रोत से करने से इन्द्रियों पर नियंत्रण का लाभ सौ प्रतिशत मिलता है।

 

एक और खासियत मेरे परिवार की जो मुझे जन्मजात मिली कथनी और करनी में समन्वय बनाये रखना। जब व्यक्ति के वचन और कर्म में समानता होती है, तो वाक्य सिद्धि प्राप्त होती है। इसके लिए दुर्गा सप्तशती के अंत में दिए पाठ सिद्धि कुंजिका स्त्रोत का पाठ नियमित रूप से करना बहुत सहायक होता है।

 

सात्विक विचारधारा होना। सात्विकता से तात्पर्य “मन कर्म और वचन” से सात्विक/ पवित्र होना है।

 

मन में इर्ष्या , उत्तेजनापूर्ण विचार, क्रोद्ध ,अहंकार की भावना को जगह न देने के माध्यम से निर्मल करना। मन को सात्विक विचारों के अभ्यास में लगाने के लिए भजन -कीर्तन/सत्संग को दिनचर्या का अभिन्न अंग बनाना चाहिए। खाली समय में मन में किसी भी मन्त्र का जप करते रहना चाहिए।

 

अपने कर्तव्यों का पूरी ईमानदारी से पालन करना, दान/दया /करुणा के भावों का प्रदर्शन निस्वार्थ भाव से करने के माध्यम से कर्म की पवित्रता बनाए रखना।

 

बहुत सोच – विचार करने के बाद ही मुख से शब्द बाहर निकालना एवं अपने वचनों पर कायम रहने के माध्यम से वचन की पवित्रता बनाए रखना।

 

सात्विक भोजन से तात्पर्य है शरीर के अंगों को विकार रहित रखने में सहायक आहार का सेवन करना। अर्थात क्षेत्रीय भौगोलिक स्थिति के अनुरूप आहार का सेवन करना। हालाँकि सात्विक भोजन से सामान्यतः अर्थ लगाया जाता है शाकाहारी भोजन और उसमें भी गर्म तासीर वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करने से परहेज करना। जिससे कि शरीर में उत्तेजना पैदा करने हार्मोन्स ज्यादा सक्रीय न हो सके।

 

किन्तु मेरे ख्याल से यदि आपको किसी खाद्य पदार्थ के सेवन की इच्छा हो, तो उसे जरूर खाना चाहिए। इसके बाद उसे ग्रहण करने से प्राप्त हानि -लाभ का विचार करने के बाद उससे परहेज करने की कोशिश करनी चाहिये। क्योंकि इच्छाओं का दमन करने से आप केवल  भौतिक रूप से उस पर नियंत्रण पा सकेंगे। आपके अंतर्मन में उस चीज के प्रति लालसा दबी रह जायेगी, जो कि आपके ब्रह्मचर्य पालन में बाधक साबित होगी।

 

उत्तेजना बढ़ाने वाले दृश्य को देखने से परहेज करना एवं अनैतिक कार्यों में लिप्त लोगों से दूर रहना चाहिए।

 

गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के क्रम में केवल संतानोत्पत्ति के लिए कामशक्ति का प्रयोग करना चाहिए। पराई स्त्री को माता /बहन/पुत्री की भावना से देखना और स्त्रियों को ब्रह्मचर्य पालन हेतु पराये पुरुषों को पिता/पुत्र /भाई के भाव से देखना चाहिए।

 

उपर्युक्त आचरण को दैनिक दिनचर्या में शामिल करना ही ब्रह्मचर्य का पालन करना है।

 

ऋषि दयानंद के ब्रह्मचर्य के आदर्श जानने के लिए लिंक का प्रयोग करें।

 

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