How to practice Assumption/Dharana in yoga योग में धारणा का अभ्यास कैसे करें

How to practice Assumption/Dharana in yoga योग में धारणा का अभ्यास कैसे करें
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साप्ताहिक डायरी भाग – 8

दोस्तों आज सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के आठवें भाग से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ। पिछले भाग में आप मेरी डायरी के पन्नों में सिमटे ध्यान के लिए प्रत्याहार के महत्त्व से परिचित होने के रोमांचक सफ़र में शामिल हुए थे।आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ।आइये चलें, सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के पन्नों से ध्यान में प्रवेश के लिए धारणा का विवरण संजोय लम्हों के सफर पर।

 

पतंजलि योगसूत्र के अनुसार योग का सातवाँ चरण ध्यान है। इस चरण में प्रवेश करने से पूर्व महर्षि पतंजलि द्वारा बताये गए योग के छह अंगों के अभ्यास में निपूर्ण होना आवशयक है। दोस्तों, सामान्यतः देखा जाए तो जिसे हम धारण करना चाहते हैं, उसी वस्तु/पदार्थ पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है।

 

किन्तु योग की प्रक्रिया में धारणा और ध्यान में अंतर बनाए रखने के माध्यम से ध्येय को प्राप्त करने का सफर तय करना है। योग का ध्येय होता है समाधि में लीन होना। अर्थात अपने अन्दर समा जाना ये तभी संभव है, जब साधक शरीर की इन्द्रियों और भौतिक जगत से पूर्णतया विमुख होने की अवस्था में पहुँच जाए। महर्षि पतंजलि योगसूत्र के अनुसार “चित्त की वृत्तियों का रुक जाना हीं योग है।” अर्थात चित्त में उत्पन्न होने वाले विचारों और उन विचारों की तरंगों से प्रभावित होकर मस्तिष्क के प्रतिक्रिया करने की प्रक्रिया को रोकने की अवस्था प्राप्त करने में निपूर्ण होना हीं योग है। योग की इस अवस्था तक पहुँचने के लिए धारणा और ध्यान के माध्यम से अपने स्वरूप में स्थित होने के प्रति जागरूकता का अभ्यास होना आवश्यक है। तो आइये जाने योग के सातवें चरण ध्यान में प्रवेश करने के लिए धारणा को धारण करने के अभ्यास की जानकारी।

What is Dharana/Assumption  धारणा का क्या अर्थ है

महर्षि पतंजलि योगसूत्र के अनुसार – “धारणा का अर्थ है धारण करना, थमना, किसी एक बिंदु पर चित्त को स्थिर करना हीं धारणा है। यानी ध्यान के चरण में प्रवेश करने से पहले यम ,नियम,आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार के माध्यम द्वारा  शरीर की इन्द्रियों को उनके विषयों (रस ,रूप, गंध, स्पर्श और शब्द) से विमुख (मोड़कर /हटाकर) करके चित्त में स्थिर करना है।  फिर स्थिर किये गए चित्त को एक स्थान विशेष पर एकाग्र कर लेने को धारणा कहते हैं।”

योग के छठवें चरण धारणा का अभ्यास करने के क्रम में साधक द्रष्टा भाव में स्थित रहना सीख लेता है। द्रष्टा भाव यानी इस भौतिक जगत के क्रियाकलापों से खुद के व्यक्तित्व को अलग रखते हुए दर्शक बने रहना है। वस्तुतः जीव का असली स्वरूप द्रष्टा हीं है। यानी हमारी आत्मस्वरूप जो शरीर में स्थित होकर शरीर की क्रियाकलापों से विरक्त रहती है। जीव को अपने आत्मस्वरूप का परिचय पाने के लिए आत्मा के गुण यानी द्रष्टा भाव के गुण में स्थित होना होगा। तभी साधक अपना परिचय योग के माध्यम से प्राप्त करने में सफल हो सकेगा।

My Experience of Practicing Assumption/Dharana धारणा के अभ्यास का मेरा अनुभव

दोस्तों धारणा का अभ्यास करने की विधि मैं अपने अनुभव के आधार पर आपके साथ शेयर कर रही हूँ :

धारणा के अभ्यास के क्रम में चित्त में उत्पन्न होने वाले विचारों पर विराम लगाने का अभ्यास जारी रखना पड़ता है। ऐसा करने से चित्त स्थिर होने की अवस्था में पहुँच जाती है। अब इस स्थिर चित्त को शांत बनाए रखने के लिए शरीर में किसी स्थान पर टिकाना होता है। जिस स्थान पर धारणा के अभ्यास के दौरान एकाग्रता का अभ्यास किया जाता है, उसी स्थान को ध्यान के चरण में भी एकाग्रता का केंद्र बिंदु बनाना होता है।

मैं धारणा के अभ्यास के लिए आज्ञा चक्र (दोनों भृकुटी के मध्य) को एकाग्रता का केंद्र बिंदु बनायी हूँ।

दोस्तों, चित्त की चंचलता को स्थिर करने के लिए पहले मैंने त्राटक साधना करने का अभ्यास किया था। क्योंकि शुरुआत में आँख बंद करके ध्यान केन्द्रित करने में चित्त की वृत्तियाँ काल्पनिक लोक में पहुँचा देती थीं। इस समस्या का सामना करने का कारण मुझे चित्त की चंचलता पर विराम लगाने का अभ्यास नहीं था।

दरअसल इन्द्रियों को विषयों से विमुख करने में वक्त लगता है। इसके लिए पहले त्राटक साधना करना मेरे लिए बहुत लाभप्रद साबित हुआ।

त्राटक साधना में भौतिक जगत की किसी भी बिदु को जैसे – फूल, पत्ती, चाँद या दीवार/कागज पर बने बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करना होता है। जब ध्यान केन्द्रित करने का आनंद आने लगा अर्थात घंटों त्राटक साधना में समय बिताने की आदत हो गयी। तब आँखें बंद करके शरीर के चक्रों पर ध्यान लगाना भी सहज होता गया।

दरअसल त्राटक साधना करने के फलस्वरूप आँखें बंद करने पर नीले रंग के प्रकाश का दिखना शुरू हो गया। बस इसी प्रकाश को आँखें बंद करके देखने का अभ्यास करने का सहारा मिल गया और ध्यान के सफर की नींव पड़नी शुरू हो गयी।

तो मेरे अनुभव के अनुसार आँखे बंद करके साधना करने की शुरुआत से पहले आँखे खुली रखते हुए भौतिक जगत की वस्तुओं पर ध्यान एकाग्र करने के अभ्यास में निपुर्णता हासिल करना, मेरे लिए लाभदायक साबित हुआ।

दरअसल शरीर की बाहरी इन्द्रियों को एकाग्र करने के अभ्यास के क्रम में हीं इन्द्रियों को उनके विषयों से विमुख करने का अभ्यास भी बहुत हद तक पूरा हो चूका होता है। फिर आँखें बंद करके एक विशेष बिंदु/चक्र पर स्थिर चित्त को बाँधना सहज होता है। बिना धारणा का अभ्यास किये ध्यान लगाने में सफलता प्राप्त करना सम्भव नहीं है।

ध्यान लगाने की प्रक्रिया के दौरान आप भृकुटी के बीच ध्यान केन्द्रित कर रहें हैं, इस धारणा के प्रति मन में चैतन्यता बनाए रखना आवश्यक है।

ऐसा इसलिए करना है क्योंकि ध्यान केन्द्रित करने के क्रम में कब मन काल्पनिक विचारों में खो जाता है, इसका पता भी नहीं चलता है। अतः विचारों में बहने की शुरुआत होते हीं वापस मन को धारणा ( चयनित केंद्र बिंदु) पर केन्द्रित करना होता है। बस इसी युक्ति को अपनाकर मैं धारणा के चरण के अभ्यास कर रहीं हूँ।

धारणा के चरण में भी ध्यान केन्द्रित करने के क्रम में कुछ सेकेण्ड के लिए मैंने शुन्यता की अवस्था में पहुँचने का अनुभव प्राप्त किया है।

यही शुन्यता की स्थिति ( जब धारणा के लिए चयनित किये गये बिंदु/स्थान विशेष में चेतना पूर्णतया समा जाती है) हीं ध्यान से समाधि के चरण में प्रवेश का एहसास है।

किन्तु धारणा के अभ्यास में निपूर्ण न होने के कारण जरा सी आवाज या कीट -पतंगों के शरीर के अंगों पर रेंगने से ध्यान भंग हो जाता है।

तो दोस्तों अभ्यास करने से कुछ भी हासिल क्या जा सकता है।

 

 

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