Koi Gila- Shikva Na Raha कोई गिला- शिकवा न रहा

Koi Gila- Shikva Na Raha कोई गिला- शिकवा न रहा
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दोस्तों आज सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के 28 वें भाग से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ। पिछले भाग में आप मेरी डायरी के पन्नों में संजोये “40 की उम्र के बाद महिलाओं के आहार में 5 पोषक तत्व है जरुरी” से परिचित होने के सफर में शामिल हुए थे। आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ। सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के इस भाग में प्रस्तुत है- जीवन दर्शन से रूबरू करवाती “कोई गिला- शिकवा न रहा” शीर्षक कविता, तो आइये काल्पनिक लोक का भ्रमण करें।


गिला- शिकवा न रहा

जीवन में अब कोई मेरे गिला-शिकवा न रहा

या कहूँ कि कोई मुझे इस काबिल हीं न मिला।

 

यूँ हवा का इक झोंका नाजुक तने को झकझोर चला,

कि फिर न जड़ो से जुड़ने का कोई आस बाकी रहा।

 

नम्र होने की सज़ा है या कि हवा के झोंके की खता है,

जो भी हो वजह नियति की यही रज़ा है।

 

अबोध मन मेरा यूँ हीं बाँहे पसारे रह गया,

मोह पंछी हृदय चमन से दूर गगन में उड़ चला।

 

भावों के बंधन, क्रंदन से मुक्त मन अब हो चला,

ज्ञान सूर्य ऐसे उदित हो अंधियारे को धो गया।

 

जीवन में अब कोई मेरे गिला-शिकवा न रहा,

या कहूँ कि कोई मुझे इस काबिल हीं न मिला।।

 


शाखों के पीले पत्ते 

शाखों के हरियाले पत्ते,

जो हैं आज पीत हुए,

शीत-ग्रीष्म सहते -सहते,

बदरंग और अतीत हुए,

उन पतझड़ के नीरस पत्तो में भी था आस कभी,

जिन शबनमी अश्को का नयनो में था आवास कभी,

बिखर चुके हैं सूख गए हैं,

हाँ, उन पर भी था नाज़ कभी,

जिन स्मृतियो से हो जाते हैं, सजल नयन अभी,

उनमें भी सजते थे सपने, जगते थे प्यास कभी ,

जिन स्वरो की मादकता का होता नहीं आभास अभी,

देती थीं वो व्याकुल मन को,

रसमय संगीत का आभास कभी,

वो प्रेम ज्ञान भ्रमित करती,

जो हँस कर देती हूँ टाल अभी,

हाँ, संजो लेती थी अनमोल जानकर, उन बातों को मैं कभी,

पतझड़ में शाखों से पीले पत्ते, जैसे गिरते झर-झर कर,

छॉट दिया मैंने अन्तर से पीले स्मृतियो के दल सभी,

कितने सावन और बसंत आते-जाते जीवन में,

फिर एक तुम्हीं से क्यों,

मन विहवल छाते क्यों अनन्त घन,

बनना-मिटना तो है एक क्रम,

शाखों पर फिर पतझड़ का क्या ग़म ।।


भ्रम यूँ हीं पाला था 

 

मेरी आती-जाती साँसो ने कुछ भ्रम यूँ हीं पाला था,

साँसो के तार में तेरे नाम का मनका डाला था,

पिरो रही थी जीवन उनमें,

मैंने कब तुमसे कुछ माँगा था,

जीवन के सरगम में मैंने तेरा हीं धुन पहचाना था,

तुम करते रहे परिहास प्रिये मैंने नहीं जाना था,

तुम बादल हवा के झोंके संग उड़ जाओगे,

नेह की एक बूँद न बन पाओगे,

कब मैंने निर्झर धारा माँगा था,

लो मान गयी भ्रमित थी मैं,

साँसो पर कब एतबार हमारा था,

जीवन का भार हमारा था,

हमने हीं उसे सँवारा था,

तुम्हे रमना नहीं गवारा था,

लो मैंने ये स्वीकार किया,

अपनी साँसो के भ्रम से,

मैंने तुम्हे आज़ाद किया ।।

 


परिहास बनी 

पल दो पल के उन्मादित पलों को,

अनुराग समझ परिहास बनी,

कोमल एहसासों को अपने पाषाण में तराश  रही,

क्षणभंगुर जगत में अमरता मैं तलाश रही,

प्रेम -विरह की पीड़ा जीवन में अवसाद बनी,

कुसुमित एहसासों के पल,

है मुझ पर अब भार बने,

सोते -जगते नयनो में सपने जो जगमग दिन-रात करें,

जुगनू बन भ्रमण करें,

अब उनका रस्ता मैं ताक रही,

छिन्न हुए हालातों को

कब से हँस-हँस कर मैं  टाल  रही,

अवसादो से भरे पलों को जीवन में ढाल रही,

तन्मयता अमिट प्रेम की जीवन से मैं हार चली,

पल दो पल के उन्मादित पलों को,

प्रेम समझ परिहास बनी ।।

 

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