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दोस्तों आज सात्विक जीवन का साक्षात्कार कराती डायरी के 78 वें भाग से आपका परिचय करवाने जा रही हूँ। पिछले भाग में आप मेरी डायरी के पन्नों में संजोये लेख गठिया रोग का आयुर्वेदिक उपचार से परिचित होने के सफर में शामिल हुए थे। आप सभी के स्नेह और उत्साहवर्धन के लिए मैं ह्रदय से आभारी हूँ। इस भाग में “पीलिया के लक्षण, कारण और आयुर्वेदिक उपचार” की जानकारी से आपका परिचय करवा रहीं हूँ।
पीलिया रोग यकृत/लीवर सम्बन्धी विकार उत्पन्न होने के कारण होता है। आयुर्वेद में पीलिया रोग को कामला रोग कहा जाता है।आयुर्वेदिक चिकित्सा विज्ञानं की चरक संहिता, सुश्रुत, हारित आदि संहिता में कामला / जॉन्डिस रोग के कारण और उपचार से सम्बंधित जानकारी का वर्णन किया गया है। चरक सहिंता के अनुसार कामला रोग शरीर में पित्त दोष के बढ़ने एवं अत्यधिक पित्त वर्धक आहार के सेवन करने से रक्त में पित्त बढ़ने के कारण होता है।
पीलिया रोग होने के कई कारण हो सकते हैं। जैसे – पित्ताशय की पथरी, एल्कोहलिक लीवर रोग,हेपेटाइटिस या अन्य यकृत सम्बन्धी संक्रमण आदि। अतः कारण के आधार पर पीलिया रोग के उपचार के लिए दवा एवं आहार में परहेज के माध्यम से उपचार की सलाह चिकित्सक देते हैं।
पीलिया रोग किसी भी आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित कर सकता है। नवजात शिशुओं में जॉन्डिस होने के मामले ज्यादा देखे जाते हैं। आइये देखें पीलिया रोग के कारण, लक्षण एवं आयुर्वेदिक उपचार की जानाकरी।
What is Jaundice? पीलिया क्या है?
पीलिया रोग में त्वचा, श्लेष्मा झिल्ली और आँखों के सफ़ेद भाग में पीलापन दिखाई देने लगता है। यह रक्त में बिलीरुबिन नामक पदार्थ के निर्माण होने का संकेत देता है।
बिलीरुबिन (हीमोग्लोबिन में पाया जाने वाला रक्तकण रंजक/पिग्मेंट होता है) की मात्रा रक्त में बढ़ने का कारण लाल रक्त कोशिकाओं के टूटने की दर सामान्य से अधिक होना या लिवर का ठीक से कार्य न करना है।
सामान्यतः लाल रक्त कोशिकाओं के टूटने पर रक्त में पहुँचने वाली बिलीरुबिन की अधिकाँश मात्रा को रासयनिक क्रिया के उपरान्त मल के माध्यम से पित्त के रूप में शरीर से बाहर निकाल दिया जाता है।
किन्तु शरीर में किसी विकार के कारण लाल रक्त कोशिकाओं के असामान्य दर से टूटने या लिवर में विकार उत्पन्न होने के कारण बिलीरुबिन की मात्रा रक्त में सामान्य से अधिक हो जाती है। पीलिया रोग के गंभीर स्थिति में पहुँचने पर पीला रंग हरे रंग में बदलने लगता है। ऐसा पित्त में मौजूद हरे पिग्मेंट के कारण होता है।
Types of Jaundice पीलिया के प्रकार
पीलिया रोग के मुख्यतः तीन प्रकार है :
- प्री -हिपेटिक
इस प्रकार के पीलिया रोग होने का कारण लाल रक्त कोशिकाओं का सामान्य से अधिक मात्रा में टूटना है। जिसके परिणामस्वरूप रक्त में बिलीरुबिन की मात्रा बढ़ जाती है।
- हिपेटिक
इस प्रकार के पीलिया होने का कारण यकृत/लिवर में वायरल संक्रमण होना है। इसमें लिवर में सूजन आ जाती है। हिपेटिक पीलिया (ए ,बी, सी,डी एवं ई) पाँच प्रकार के वायरल संक्रमण शमिल है।
- पोस्ट – हिपेटिक
इस प्रकार के पीलिया में पित्त नलिकाओं या पैंक्रियाज/अग्न्याशय के भीतर ब्लॉकेज/रुकावट होने के कारण पित्त प्रवाह में बाधा उत्पन्न होती है। जिसके फलस्वरूप रक्त में बिलीरुबिन की मात्रा बढ़ जाती है।
Causes and Risk Factors कारण एवं जोखिम कारक
AAFP फाउंडेशन के रिसर्च आर्टिकल के अनुसार जॉन्डिस रोग के लिए निम्नलिखित कारक जिम्मेदार हो सकते हैं :
- पित्ताशय की पथरी
- कुछ रोगों के उपचार हेतु प्रयोग की जाने वाली दवाओं का साइड इफ़ेक्ट
- बहुत ज्यादा एल्कोहल का सेवन करना
- अग्न्याशय शोथ (पैंक्रिअटिक) या पित्ताशय का कैंसर
- लीवर सिरोसिस होना
- हेपेटाइटिस या लिवर में अन्य लीवर संक्रमण
- हेमोलिटिक एनीमिया
Jaundice in Newborn नवजात शिशु में पीलिया
नवजात शिशुओं में पीलिया एक आम स्वास्थ्य समस्या है। पीलिया के लक्षण जन्म के 48 घंटे या दो दिन के भीतर उत्पन्न होने की सम्भावना अधिक होती है।
रोग नियंत्रण और रोकथाम केंद्र (CDC) के अनुसार, लगभग 60% नवजात शिशुओं में पीलिया विकसित होता है। जिसमें बिलीरुबिन का स्तर शिशुओं में सबसे अधिक होता है, जो आमतौर पर जन्म के 3-5 दिनों के बीच होता है।
लाल रक्त कोशिकाएं अक्सर बच्चे के शरीर में समय से पहले टूट जाती हैं और यकृत द्वारा पित्त में बदल जाती हैं। शिशुओं का यकृत कम विकसित होइ के कारण शरीर से बिलीरुबिन को छानने में कम प्रभावी होता हैं, जिसके परिणामस्वरूप शिशुओं में अधिक बिलीरुबिन का उत्पादन होता है।
हल्के पीलिया के मामलों में, बच्चे को उपचार की आवश्यकता नहीं होती है, लेकिन उच्च बिलीरुबिन स्तर के मामले में, बच्चे को रक्त चढ़ाने या फोटोथेरेपी उपचार देना आवश्यक हो जाता है।
Symptoms of Disease रोग के लक्षण
- शरीर की त्वचा, श्लेष्मा झिल्ली और आँखों के सफेद हिस्से में पीलापन दिखाई देना
- मल का रंग हल्का पीला होना
- मूत्र का रंग गहरा पीला होना
- त्वचा में बहुत अधिक खुजली होना
- शिशुओं में माथे/forehead से पीलेपन की शुरुआत होकर पुरे शरीर में फैलने की सम्भावना होती है
उपर्युक्त लक्षणों के साथ रोग के अन्य लक्षणों में शामिल है :
- पेट में दाहिने तरफ दर्द होना
- थकान
- बुखार
- भूख कम लगना
- वजन कम होना
- उल्टी की शिकायत होना
Ayurvedic Treatment of Jaundice पीलिया का आयुर्वेदिक उपचार
आयुर्वेद में पीलिया रोग का उपचार दो विधियों से किया जाता है-
पंचकर्म विधि –
कमलातुविरेचा उपचार विधि से पीलिया रोग का उपचार किया जाता है। इस प्रकार की उपचार पद्धति में शरीर का शोधन किया जाता है। पाँच कर्म विधि में स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचन, वस्ति कर्म की प्रक्रिया द्वारा शरीर के त्रिदोषों को संतुलित करने के माध्यम से उपचार किया जाता है।
आयुर्वेद के अनुसार सभी रोगों का कारण शरीर में पित्त , कफ और वात का असंतुलन होना है। अतः त्रिदोषों के संतुलन और आहार विहार में परहेज के माध्यम से रोगों के उपचार की पंचकर्म विधि बहुत ही प्रभावी होती है।
जड़ी -बूटियों एवं परहेज के माध्यम से
फलात्रिकादि क्वाथ – इस औषधि का उपयोग लिवर से सम्बंधित विकारों के उपचार के लिए किया जाता है। इसके अतिरिक्त जठरशोथ /गैस्ट्र्रिटिस एवं उल्टी की समस्या के उपचार में भी इस औषधि का प्रयोग कारगर होता है।
त्रिफला – इस औषधि में एंटीऑक्सीडेंट गुण होने के कारण लिवर कोशिकाओं को फ्री रेडिकल से होने वाले नुकसान एवं वायरल संक्रमण दूर करने में सहायक होती है।
वासा (अडूसा) – कई शोध अध्ययनों में पाया गया है कि वासा जड़ी -बूटी के अर्क में मौजूद प्रमुख क्षारीय तत्व वैसिसिन (vasicine) रासायनिक यौगिक में सूजनरोधी एवं एंटीऑक्सीडेंट होता है। जो कि लिवर से सम्बंधित समस्याओं एवं संक्रमण को दूर करने में प्रभावी है।
किरत्तिकता (स्वेरटिया चिरायता) – इस औषधीय गुणों से भरपूर जड़ी -बूटी में प्रमुख बायोएक्टिव एजेंट ज़ैंथोन
और सेकोइरिडॉइड ग्लाइकोसाइड पाया जाता है। जो कि पीलिया एवं अन्य लिवर से सम्बंधित संक्रमण को दूर करने में सहायक है।
कटुकी चिरायता – इस जड़ी -बूटी में मौजूद पिक्रोलिव नामक बायोएक्टिव रासायनिक यौगिक एक ग्लाइकोसाइड है।
इस यौगिक पर शोध से पता चला है ये एक्यूट वायरल जैसे रोग हेपेटाइटिस, तपेदिक और ब्रोन्कियल अस्थमा को ठीक करने में बहुत कारगर है। इसके अर्क का उपयोग पीलिया रोग और उसके लक्षण उल्टी, बुखार के उपचार में बहुत उपयोगी है।
शोध अध्ययनों से प्रमाणित हो चूका है कि उपर्युक्त वर्णित जड़ी -बूटियों के अतिरिक्त गुडूची, हरीतकी, कालमेघ, कुटकी, मुस्ता, पिप्पली,पुनर्नवा का उपयोग यकृत / लिवर से सम्बंधित रोगों जैसे – हेपेटाइटिस ए, बी और सी के इलाज में उपयोगी है।
Prevention and Control Measures रोकथाम और नियंत्रण के उपाय
- विषाक्त पदार्थों, रसायनिक गैस एवं प्रदूषण माध्यमों में श्वाँश लेने से बचना।
- संतुलित आहार का सेवन करना।
- अधिक शराब के सेवन से परहेज करना।
- बिना डॉक्टर की सलाह से दवाओं के सेवन में सावधानी बरतना।
- धूम्रपान से परहेज करना और नशीले पदार्थों को नसों के माध्यम से शरीर के अंदर प्रवेश करने से बचना।
- बिना आयुर्वेदिक चिकित्सक से परामर्श किये जड़ी -बूटियों के सेवन से परहेज करना।
- सुरक्षित यौन सम्बन्ध को प्राथमिकता देना।
- दवा की निर्धारित मात्रा से अधिक खुराक लेने से बचना।
Diet in Jaundice पीलिया रोग में आहार
- कम से कम 10 -15 दिनों तक आहार में गन्ना, चुकुन्दर, गाजर, अंगूर, नाशपाती,निम्बू, लौकी, करेला, आँवला के रस का सेवन करना चाहिए।
- पानी का भरपूर सेवन करना चाहिए।
- भरपूर नींद लेना और आराम करना चाहिए। इससे लिवर को स्वस्थ होने में मदद मिलती है।
अभी तक एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में हेपेटाइटिस लाइलाज रोगों में से एक बना हुआ है। इसके उपचार के नाम पर टीकाकरण आज उपलब्ध है। किन्तु शोध अध्ययनों प्रमाणित हुआ है कि आयुर्वेद में ऐसी अनेक औषधीय जड़ी -बूटियाँ मौजूद है, जिनके प्रयोग से पीलिया एवं अन्य प्रकार के वायरल संक्रमण से होने वाले यकृत सम्बन्धी रोग का उपचार सम्भव है।
स्त्रोत :
Treatment of Hepatitis Virus by Herbal Remedies
EFFECT OF AYURVEDIC TREATMENT ON LIVER FUNCTION
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